समंदर

कहीं मैयत, तो कहीं महफ़िलें देखता हूँ...
कहीं धोखा तो कहीं लोग सच्चे देखता हूँ...
कहीं खिलती आँखे, तो कहीं आंसू देखता हूँ...
कहीं आलिशान महल तो कहीं ठिठुरते बच्चे देखता हूँ |

कहीं बेबस बुढ़ापा तो कहीं मधहोश जवानी देखता हूँ...
कहीं टूटते ख्वाब तो कहीं बुलंदियां झुकते देखता हूँ...
कहीं मोहोबत्त तो कहीं लम्बी रंजिशे देखता हूँ...
शांत वादियों में भी कभी बस्तियां लुटते देखता हूँ ||

कहीं अटूट विश्वाश तो कहीं टूटते मंदिर देखता हूँ...
घनघोर अंधेरों में भी कभी उजियारे अन्दर देखता हूँ...
देखता हूँ कभी, उफनती इस सागर की लहरों को...
बंद आँखों से कभी, खुद में ये समंदर देखता हूँ |||

By.... अभय कुमार
4 feb 2015