Surrender yourself... to the GOD who takes away all our imprudence and sins...

Surrender


Through the days on burning sand,
I walked bare footed and sweat.
Never wished for my dry throat,
A drop of water to wet.

All the moments I always ran,
Without a shelter or shade.
No matter u did never notice,
I was always quiet and glad.

I fainted and rose, and fainted and rose,
But let my steps on desert way.
Accepted the pain whenever u gave.
“No” never I put, the order u gave.

My master I know; I’m slave of yours.
It’s nothing the toil whatever I do,
When a day will come; I’ll lay down,
I know you’ll take in lap of you…

Abhay Kumar

Nothing might be more... disgraceful then being selfish... one who can distributed for all... is the Man. My elegy...a sad story of a bird who lost her home and her babies...The unseen aspect of our society...

 
उङान
बस छोटि सी उङान थी,
कुछ तिनकों की तलाश में,
ठिठुर रहे थे, मेरे बच्चे…
बस मेरे इन्तजार में॥
पर सोचा की कुछ दाने भी…
बटोर लूं मैं उनके लिए…
वो प्यासे हैं दो बूंदें भी…
मैं साथ ले चल लूं लिए॥
बस इतने अन्तराल में,
कुछ सांझ सी भी, ढल गयी,
दिन अन्धकार को बढ चला,
क्या देर मुझको हो गयी ?
यह सोचकर वह डरते हैं,
इस कालेपन को देख कर,
मैं जल्द ही फ़िर उङ चली,
संग चींजें चन्द लपेटकर ॥
फ़िर डर सा भी कुछ लगने लगा,
कहीं चीखें ना नादान हैं वों,
सुन चीखें उनकीं बैर कोइ,
ले जा ले मेरे सहारों को॥
यह सोच के धङकन बढ गयी,
मैं पंखों की गति तेज कर,
रटती उङती कहती, हे राम!
मेरे बच्चों की तू रक्षा कर॥
ज्यों पहुची मैं मौहल्ले में,
एक बिखरा सा माहौल था,
कुछ आरी की आवाजें थीं,
एकऽनर्थ का आगोश था॥
यह देख के धङकन थम गयी,
वह पेङ गिरा था भूमी पर,
जिसमे रहते मेरे बच्चे,
बिखरा सा पङा वह मेरा घर॥
फ़िर चूं-चूं की आवाज सुन,
मैं दौङी कहाँ हैं मेरे लाल,
बस सोचती मैं सलामत हों,
उनसे ही तो है मेरी जान…!
पर देखा की तरु का तना,
पट सा पङा था उन नन्हों पर,
वो आंखें मूंद के सिसक रहे,
माँ आयेगी इस आस पर॥
निर्बल कन्धों से फ़िर मैंने,
सोचा की मैं लुढका दूं उसे,
पर टस से मस ना हो पया,
असमर्थ खङी मुझ अबला से॥
फ़िर मदद की गुहार उठी,
इस असहाय के मुख से,
सोचा की प्राण वे तर देंगे,
कातिल जो खङे आरों के संग ॥
तरु के मालिक के निकट पहुंच,
मैं बोली की, हे दयानिधान…!!
मेरे तारों की सांसें अटकी,
तू दे दे उनको प्राण दान॥
मैं वही हू जो नित आती हूं,
निःस्वार्थ तेरे आंगन मे,
तेरा बच्चा भी खेलता है,
हंस हंस के नित मेरे संग॥
क्यों खङा है तू निर्दयी बनकर,
क्या ममता की तुझे कद्र नहीं,
कीमत क्या उनकी सांसों की,
कुछ सिक्कों से भी बङी नहीं,
क्या पायेगा इन लठ्ठों से,
क्या पालेगा इन्हें बेच के तू,
तू बख्क्श दे नन्हों की जान,
ले रख ले ये दाने भी तू॥
इसका भी कोइ असर नहीं,
वो खङा रहा आरों के पास,
जब चीखती मै तो हंसता वो,
एक दिल भी नहीं था उसके पास॥
फ़िर हार के मै वापस आयी,
गिन लूं अब मैं सांसें उनकीं,
सहला दूं मैं माथा उनका,
अब असमर्थ थी, माँ उनकीं॥
सहला के उनके मांथों को,
टपकायी पानी की बूंदें,
कुछ आंसूं भी टपका दिये,
नीले-नीले उन होंटों पर,
वो धीरे धीरे सो गये,
करते करते मेरा ध्यान,
और अन्ततः मैं समझ गयी,
छोटे से जीवन की उङान…॥

अभय कुमार

जो निश्चल है, हर पल समर्पित है… उस माँ को मेरी "अभिव्यक्ति" समर्पित ॥


अभिव्यक्ति

ना मिलते मुझको शब्द कोई,
जिससे तुझको मैं व्यक्त करूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

तेरी निश्चल सी वो आंखें,
गर दर्द मुझे हो, रोती हैं।
फ़िर हंसता मुझको देखकर,
खुद यूं ही वो हंस देती हैं।
उन आंखों की खुशी के लिये,
हर पल को मैं अर्पण करूं,
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

                                 तेरी कोमल सी वो बातें,
                              सहलायें मेरी हर सांसें।
  लोरी तेरी गूंजें हर पल,
सहमायें जब मुझको रातें।
तेरे मुख के हर शब्दों को,
दिल में अपने ही मैं भर लूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

सह पाती ना एक आह मेरी,
हर दर्द मेरा पी लेती तू।
जब कभी मुझे ठोकर लगती,
झट से गोदी ले लेती तू।
माँ दर्द कभी ले के तेरा,
अपना जीवन साकार करूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

मैं रहूं सफ़ल इस जीवन में,
तू करती है बस आस यही।
जब गिरे कभी विश्वास मेरा,
आती मुझको बस याद तू ही।
आशीष तेरा हर पल मुझपे,
कैसे यूं ही पथ से भटकूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

माँ शब्द तू ही, है अर्थ तू ही,
है जीवन का आधार तू ही।
माँ ब्रम्ह तू ही, आनन्द तू ही,
मैं हूं इसकी भी वजह तू ही।
तू रहे सदा इस दुनिया में,
इन सांसों पे सिमरन करूं।
माँ सच मे है, अनन्त कोई…
कैसे इसको अभिव्यक्त करूं॥

“ये पक्तियाँ मेरी माँ को समर्पित”
अभय कुमार

वो चाहत ही है, जो अंधेरी आंखों मे, उजाला भर देती है…वो चाहत ही है,जो खो जाय तो, इन आंखों मे आँसूओ का समंदर भर देती है॥

आँसू

शब्दों की तलाश मे, ये रात गुजर जायेगी…

कुछ बातों की आस मे, कायनात बदल जायेगी…

जब चाहतों की उसकी, सौगात चली जायेगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

इन रात के अंधेरों मे, मै रह रहा सा था कहीं…

तू प्यार का एक दीप जला, इक उजियारा सा कर गई…

जब लौ को बचाने मे, हथेलियां सुलग जायेंगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

प्यासा राही बनकर मै, भटकता रहा उन राहों में…

तू अक्सर मुझको प्रेम का, एक प्याला पिला जाती थी…

जब राहों से ओस की, वह बूदें सूख जायेंगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

भीड़ की आवाज भी, जब अनसुनी सी थी कहीं…

तब आहटों को भी तूने, इन सासों मे बसा दिया…

जब घुंघरुओ की छ्नछनाहट, ये आँगन छोड़ जायेगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

एहसास ना था धूप का, इस जलन का, उस आग का…

पर तेरे एक स्पर्श  ने, इस रूह को सहला दिया…

जब चाँद की शीतलता भी, इक ऊष्णता बन जायेगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

ना चाहता था जानना, इस मौसम को आकाश को…

ना तनहाइयों का फ़ीकापन, ना साथ की मिठास को…

जब दर्द भरे संसार मै, तू मुझको छोड़ जायेगी…

फ़िर ना चीखेंगे आंसू, पर, ये सांसे रूठ जायेंगी…॥


अभय कुमार

First Lesson Of "SENSing NATURE"

Someday at home, i asked my mother "amm... in this rush from school to college, i sometimes realize that i definitely skipped some chapters of life. What you say is this right?” I was not expecting such powerful answer that she spontaneously poured out "obviously, you did. Life meant more than just the knowledge in those piebald pages, we are ignoramus if don’t ever sense the NATURE around. We are dried indeed being floating in the pool of wisdom."  I dint know, that these world will take me in a long journey of self-contemplation.
Well the journey yet not completed, but I find that “SENSING NATURE” is not just a couple of word, but it’s a complete course, which everyone needs to do for being educated actually. More interesting, it is free all time but priceless, and can be start at any stage of our life. And finally I read some of those skipped chapters, although the study is continued.
Among those countless chapters,one of them tells us about our existence which is the first chapter of that course.  As all of us know the concept of mortality, which is the prime truth. But beyond this we usually forget that we all are natural creature, just single things which distinguish us from other natural things is the liberty of our thought-process. God created everything else, and made a constitution of living on earth. Same as others, we too have to follow a Law i.e. “Long Original Valuable Emotion” or simply LOVE.  This law is needed to follow extensively in every moment and with everything. I also find that the nature is so strict, means whenever we try to breach this law; we are fined in the form of our Happiness.
So at last I realize that, “if we don’t want to get punish, then we need to stay out of our way
ward habits, and selfishness. Because both of them seed a trivial emotion of “LOVELESSNESS”

How We Take.


I remember a story, in which a man thrown all the diamonds into the sea. He thought that they were stones, as he had been sick due to his unawareness, and as soon as he brought that piece of stone, front of his eyes, he fainted seeing the brilliance of that. But then, he couldn't do anything besides regretting.
         That’s how we throwing all our breaths into the ocean of our time-line. I think he (God) gives equal opportunities to each of us, more precisely say “our breaths”, to understand ourselves.  And when we put our steps on the track of self-realization, we start understanding; which things are Possible, which is NOT, also which Should Actually Be Possible, which Should NEVER Be. And sooner or later, a time comes when we get able to filter them…
          This is a natural as well as a universal truth, that awareness is as small as a seed. But if it gets a susceptible environment to grow, then it transforms in the form of a huge tree, whose fruits are divine.
            It really up to us, how we take those (our breaths)… JUST take J or ACTUALLY take J

पहचान


कभी..., शब्दों के भंडार मे से, वो एक शब्द खोज लेना, काफ़ी मुश्किल होता है, जो किसी रचना को शुरू कर दे। यह उतना ही मुश्किल होता है, जितना की इस संसार की भीड़ मे खोइ अपनी पहचान को ढूंढना। वो पहचान जो अनगिनत परछाइयों के बीच कहीं अलग थलग हो गई है।
यह दुनियां सच मुच में अजीब सी है, जो किसी के जन्म लेने से पहले ही, उसका भाग्य तय कर देती है। आपको किस रास्ते पर चलना है; लगभग पहले से ही तय होता है। पर जब कभी हम अपनी विशिष्टताओं को जानने की कोशिश करते हैं, तो प्राय: हम खुद को किसी दूसरे ही रूप में पाते हैं, और वह रूप ही शायद हमारी असली पहचान होती है।
आज ये सब लिखने का कारण, शायद मेरे दोस्त के मुंह से निकले वही कुछ शब्द हैं… जिनमें मुझे एक लेखक बनने की सलाह दी गई थी। खैर ऐसे शब्द, सामान्यतः कुछ पल के लिये मेरी वेदना बढा देते हैं। पर मैं फ़िर से अपनी वेदना को शान्त कर वापस जीवन के उसी सामान्य ढर्रे में आ जाता हूं। हाँ यह सच है, कि लीक से हट के किसी का अपनी ही खोज मे निकल जाना एक अत्यंत कठिन निर्णय है। पर दूसरा सच यह भी है, कि विशिष्ठ  वही हैं, जो उस भिहड़ से अपने असली प्रतिबिम्ब को खींच लाने में सफ़ल रहे। वास्तव में वे ही सफ़ल हैं, और वें ही पूरे हैं।
काश हम भी कभी उन रास्तों पर जाने की हिम्मत जुटा सकें, जहां हम अपनी रचना को पूरा कर पायें, और मै भी “कभी” ऐसा शब्द खोज लूं जो मेरी रचना पूरी कर दे…॥

अभय कुमार

No hurdle would be so effective that can stop us in our way... if we have faith in us and we believe that we are right...


“I’m Right”

Forgetting the sound, that howls around;
And eyes, those standing against of you…
When you choose your way unlike to crowd;
And destiny of upcoming journey too…

You move your steps and put them across;
Knowing that stones will sharp in way…
And sound will rise, would sharper than those;
But; yet you keep your fearness away…

You walk through miles, without the gains;
And find that toes are even being red…
You fill that color into your veins;
To force them that let you moving ahead…

You fall around thousands times in hour;
But keep your smile, even in pain…
And take every fall, as a bounty you score;
And promise yourself to never score it again…

You see your path, by lighting your soul;
In Cimmerian nights, where dreams are dark…
Or melt yourself in the burning coal;
To become a bow and hit the mark…

When it’s all you do, to just for Just;
But never to be known in people’s sight…
And stand against the world at base of trust;
Because you believe, at the point… I’m Right!!!


ABHAY KUMAR
11-1-12