पहचान


कभी..., शब्दों के भंडार मे से, वो एक शब्द खोज लेना, काफ़ी मुश्किल होता है, जो किसी रचना को शुरू कर दे। यह उतना ही मुश्किल होता है, जितना की इस संसार की भीड़ मे खोइ अपनी पहचान को ढूंढना। वो पहचान जो अनगिनत परछाइयों के बीच कहीं अलग थलग हो गई है।
यह दुनियां सच मुच में अजीब सी है, जो किसी के जन्म लेने से पहले ही, उसका भाग्य तय कर देती है। आपको किस रास्ते पर चलना है; लगभग पहले से ही तय होता है। पर जब कभी हम अपनी विशिष्टताओं को जानने की कोशिश करते हैं, तो प्राय: हम खुद को किसी दूसरे ही रूप में पाते हैं, और वह रूप ही शायद हमारी असली पहचान होती है।
आज ये सब लिखने का कारण, शायद मेरे दोस्त के मुंह से निकले वही कुछ शब्द हैं… जिनमें मुझे एक लेखक बनने की सलाह दी गई थी। खैर ऐसे शब्द, सामान्यतः कुछ पल के लिये मेरी वेदना बढा देते हैं। पर मैं फ़िर से अपनी वेदना को शान्त कर वापस जीवन के उसी सामान्य ढर्रे में आ जाता हूं। हाँ यह सच है, कि लीक से हट के किसी का अपनी ही खोज मे निकल जाना एक अत्यंत कठिन निर्णय है। पर दूसरा सच यह भी है, कि विशिष्ठ  वही हैं, जो उस भिहड़ से अपने असली प्रतिबिम्ब को खींच लाने में सफ़ल रहे। वास्तव में वे ही सफ़ल हैं, और वें ही पूरे हैं।
काश हम भी कभी उन रास्तों पर जाने की हिम्मत जुटा सकें, जहां हम अपनी रचना को पूरा कर पायें, और मै भी “कभी” ऐसा शब्द खोज लूं जो मेरी रचना पूरी कर दे…॥

अभय कुमार

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