मानवता के लिए एक प्रयास

क्यों न पसीजे ये दिल, जब आंकड़े 10, 20, 50 से बड़ते बड़ते 2000, 4000 , 5000  पहुचने लगें | ये किसी शेयर के दाम नहीं, बल्कि हम जैसे लोगों की जिंदगियो के आंकड़े हैं | हमारे बिलकुल पास नेपाल में, हमारे ही लोग, प्रकृती के कहर का मूल्य चूका रहे हैं, और हम यहाँ IPL की मस्ती और दोस्तों के संग ठिठोलियो में रमें हैं |
या तो ऐसी घटनाएँ हमारे लिए अब आम हो गईं हैं, या फिर हमारी संवेदनाये नम पड़ गई हैं | पर जो भी हो, जरा सोचिये क्या बीतती होगी उस 8 साल के बच्चे पर जो, मलबे में दबी अपनी मरी माँ से उठने की जिद कर रहा है या कोई बाप जो अपने बच्चे के एक आंसू नहीं देख सकता, आज उसकी एक सिसक सुनने की आस में बैठा है | 
    ऐसा नहीं की हम सब काम-धाम छोड़ के वहा चले जाएँ, पर क्या कुछ पल हम उनके लिए प्रार्थना नहीं कर सकते | क्या हम FB पे एक POST उनके नाम की नही डाल सकते , अपनी जेब से चंद रुपये उनके लिए नहीं निकाल सकते |
    मानवता के लिए हम कुछ तो संवेदनशील हों | क्या पता हमरा कोई प्रयास किसी पीड़ित के आंसू पोछ सके |||

PLEASE SUPPORT NEPAL

खुदा

अनोखा ये एहसास है, खुद में मिल जाने का...
कमियों के बीच कहीं, पूरा सा दीखता हूँ...
व्यथाए कुछ कम हैं, द्वेष भी नहीं रहा ...
लगता है जैसे की, खुद को पा लिया ||


अब ना अकेला हूँ, जिन्दगी के सफ़र में...
जज्बा भी कहीं अब दीखता नहीं टूटता...
विश्वाश की डोर ये, कही तो बधीं है...
लगता है जैसे की, खुद को मैंने पा लिया ||

अब ना है निराशा, ना ही तो कमी है...
जवाब हर सवाल का, मुझमे ही कहीं है...
करम ये तेरा है, मेरा कुछ भी नहीं.... ऐ खुदा !!
लगता है जैसे की, तुझको मैंने पा लिया ||

                                    अभय कुमार
                                    १६ अप्रैल २०१५


समंदर

कहीं मैयत, तो कहीं महफ़िलें देखता हूँ...
कहीं धोखा तो कहीं लोग सच्चे देखता हूँ...
कहीं खिलती आँखे, तो कहीं आंसू देखता हूँ...
कहीं आलिशान महल तो कहीं ठिठुरते बच्चे देखता हूँ |

कहीं बेबस बुढ़ापा तो कहीं मधहोश जवानी देखता हूँ...
कहीं टूटते ख्वाब तो कहीं बुलंदियां झुकते देखता हूँ...
कहीं मोहोबत्त तो कहीं लम्बी रंजिशे देखता हूँ...
शांत वादियों में भी कभी बस्तियां लुटते देखता हूँ ||

कहीं अटूट विश्वाश तो कहीं टूटते मंदिर देखता हूँ...
घनघोर अंधेरों में भी कभी उजियारे अन्दर देखता हूँ...
देखता हूँ कभी, उफनती इस सागर की लहरों को...
बंद आँखों से कभी, खुद में ये समंदर देखता हूँ |||

By.... अभय कुमार
4 feb 2015

Am I DEAD?

I’m one, who have been shot by one of those covered faces.
That day I was not going school, but my mother send me forcibly.
There in the auditorium, I suddenly heard the sounds of bullets and screams. Everyone in that big room got frightened…. Everyone start rushing, some outside some tried to hide themselves under the chairs.

…I was remain seated, seeing the scene. Now the covered faces entered into the room to kill each of us…
And the same they did.
Many of my mates screaming and begging for their lives. But I was remain silent, listening everyone…. Seeing everything….
Now one of those cover faces came to shoot me. I could see his eyes… he was terrified, but I was not… even a little. You know why, because I was humming the name of ALLAHA same as HE WAS.

Then I felt some bullets had crossed my chest. And then I fallen asleep. Same as I sleep in the LAP of my mother everyday… very peacefully….
Now I see my mother crying on my coffin, she thinks that I’m dead….


Am I DEAD?


-On Peshwar attack, on students of a school. Killed more then 150.

वेदना

कितनी दर्द भरी होती है ये वेदना, बैचैन करने वाली। एक भयंकर अन्तर्दव्न्द पैदा कर देती है। और कितनी निष्ठुर भी होती है, कारण पूछो तो मूँह पे ताला लगा लेती है। क्यूँ आयी है तू यहाँ? क्या चाह्ती है मुझसे? पर ज्यों ही एसा कोइ सवाल उससे पूछ्ता हूँ। अपना मूँह फ़ेर के बैठ जाती है। पर मै जानता हूं क्यूं आती है वो यहां, वो आती है, इस कोलाहल मे थोड़ी शान्ती पाने को; इस अँधेरे मे थोड़ी रोशनी पाने को। पर भटक जाती है, और भी अशान्त हो जाती है। सोचती है; शायद ये अँधेरा थोड़ा छट जाये, पर दुर्भाग्य! क्या मिलता है उसे, शान्ती के नाम पे बस सन्नाटे, और रोशनी के नाम पे बस वो बिखरे चिराग ! बस यही तो मिलता है उसे …॥

Surrender yourself... to the GOD who takes away all our imprudence and sins...

Surrender


Through the days on burning sand,
I walked bare footed and sweat.
Never wished for my dry throat,
A drop of water to wet.

All the moments I always ran,
Without a shelter or shade.
No matter u did never notice,
I was always quiet and glad.

I fainted and rose, and fainted and rose,
But let my steps on desert way.
Accepted the pain whenever u gave.
“No” never I put, the order u gave.

My master I know; I’m slave of yours.
It’s nothing the toil whatever I do,
When a day will come; I’ll lay down,
I know you’ll take in lap of you…

Abhay Kumar

Nothing might be more... disgraceful then being selfish... one who can distributed for all... is the Man. My elegy...a sad story of a bird who lost her home and her babies...The unseen aspect of our society...

 
उङान
बस छोटि सी उङान थी,
कुछ तिनकों की तलाश में,
ठिठुर रहे थे, मेरे बच्चे…
बस मेरे इन्तजार में॥
पर सोचा की कुछ दाने भी…
बटोर लूं मैं उनके लिए…
वो प्यासे हैं दो बूंदें भी…
मैं साथ ले चल लूं लिए॥
बस इतने अन्तराल में,
कुछ सांझ सी भी, ढल गयी,
दिन अन्धकार को बढ चला,
क्या देर मुझको हो गयी ?
यह सोचकर वह डरते हैं,
इस कालेपन को देख कर,
मैं जल्द ही फ़िर उङ चली,
संग चींजें चन्द लपेटकर ॥
फ़िर डर सा भी कुछ लगने लगा,
कहीं चीखें ना नादान हैं वों,
सुन चीखें उनकीं बैर कोइ,
ले जा ले मेरे सहारों को॥
यह सोच के धङकन बढ गयी,
मैं पंखों की गति तेज कर,
रटती उङती कहती, हे राम!
मेरे बच्चों की तू रक्षा कर॥
ज्यों पहुची मैं मौहल्ले में,
एक बिखरा सा माहौल था,
कुछ आरी की आवाजें थीं,
एकऽनर्थ का आगोश था॥
यह देख के धङकन थम गयी,
वह पेङ गिरा था भूमी पर,
जिसमे रहते मेरे बच्चे,
बिखरा सा पङा वह मेरा घर॥
फ़िर चूं-चूं की आवाज सुन,
मैं दौङी कहाँ हैं मेरे लाल,
बस सोचती मैं सलामत हों,
उनसे ही तो है मेरी जान…!
पर देखा की तरु का तना,
पट सा पङा था उन नन्हों पर,
वो आंखें मूंद के सिसक रहे,
माँ आयेगी इस आस पर॥
निर्बल कन्धों से फ़िर मैंने,
सोचा की मैं लुढका दूं उसे,
पर टस से मस ना हो पया,
असमर्थ खङी मुझ अबला से॥
फ़िर मदद की गुहार उठी,
इस असहाय के मुख से,
सोचा की प्राण वे तर देंगे,
कातिल जो खङे आरों के संग ॥
तरु के मालिक के निकट पहुंच,
मैं बोली की, हे दयानिधान…!!
मेरे तारों की सांसें अटकी,
तू दे दे उनको प्राण दान॥
मैं वही हू जो नित आती हूं,
निःस्वार्थ तेरे आंगन मे,
तेरा बच्चा भी खेलता है,
हंस हंस के नित मेरे संग॥
क्यों खङा है तू निर्दयी बनकर,
क्या ममता की तुझे कद्र नहीं,
कीमत क्या उनकी सांसों की,
कुछ सिक्कों से भी बङी नहीं,
क्या पायेगा इन लठ्ठों से,
क्या पालेगा इन्हें बेच के तू,
तू बख्क्श दे नन्हों की जान,
ले रख ले ये दाने भी तू॥
इसका भी कोइ असर नहीं,
वो खङा रहा आरों के पास,
जब चीखती मै तो हंसता वो,
एक दिल भी नहीं था उसके पास॥
फ़िर हार के मै वापस आयी,
गिन लूं अब मैं सांसें उनकीं,
सहला दूं मैं माथा उनका,
अब असमर्थ थी, माँ उनकीं॥
सहला के उनके मांथों को,
टपकायी पानी की बूंदें,
कुछ आंसूं भी टपका दिये,
नीले-नीले उन होंटों पर,
वो धीरे धीरे सो गये,
करते करते मेरा ध्यान,
और अन्ततः मैं समझ गयी,
छोटे से जीवन की उङान…॥

अभय कुमार

जो निश्चल है, हर पल समर्पित है… उस माँ को मेरी "अभिव्यक्ति" समर्पित ॥


अभिव्यक्ति

ना मिलते मुझको शब्द कोई,
जिससे तुझको मैं व्यक्त करूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

तेरी निश्चल सी वो आंखें,
गर दर्द मुझे हो, रोती हैं।
फ़िर हंसता मुझको देखकर,
खुद यूं ही वो हंस देती हैं।
उन आंखों की खुशी के लिये,
हर पल को मैं अर्पण करूं,
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

                                 तेरी कोमल सी वो बातें,
                              सहलायें मेरी हर सांसें।
  लोरी तेरी गूंजें हर पल,
सहमायें जब मुझको रातें।
तेरे मुख के हर शब्दों को,
दिल में अपने ही मैं भर लूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

सह पाती ना एक आह मेरी,
हर दर्द मेरा पी लेती तू।
जब कभी मुझे ठोकर लगती,
झट से गोदी ले लेती तू।
माँ दर्द कभी ले के तेरा,
अपना जीवन साकार करूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

मैं रहूं सफ़ल इस जीवन में,
तू करती है बस आस यही।
जब गिरे कभी विश्वास मेरा,
आती मुझको बस याद तू ही।
आशीष तेरा हर पल मुझपे,
कैसे यूं ही पथ से भटकूं।
माँ तू है एक अनन्त कोई,
कैसे खुद को अभिव्यक्त करूं॥

माँ शब्द तू ही, है अर्थ तू ही,
है जीवन का आधार तू ही।
माँ ब्रम्ह तू ही, आनन्द तू ही,
मैं हूं इसकी भी वजह तू ही।
तू रहे सदा इस दुनिया में,
इन सांसों पे सिमरन करूं।
माँ सच मे है, अनन्त कोई…
कैसे इसको अभिव्यक्त करूं॥

“ये पक्तियाँ मेरी माँ को समर्पित”
अभय कुमार

वो चाहत ही है, जो अंधेरी आंखों मे, उजाला भर देती है…वो चाहत ही है,जो खो जाय तो, इन आंखों मे आँसूओ का समंदर भर देती है॥

आँसू

शब्दों की तलाश मे, ये रात गुजर जायेगी…

कुछ बातों की आस मे, कायनात बदल जायेगी…

जब चाहतों की उसकी, सौगात चली जायेगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

इन रात के अंधेरों मे, मै रह रहा सा था कहीं…

तू प्यार का एक दीप जला, इक उजियारा सा कर गई…

जब लौ को बचाने मे, हथेलियां सुलग जायेंगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

प्यासा राही बनकर मै, भटकता रहा उन राहों में…

तू अक्सर मुझको प्रेम का, एक प्याला पिला जाती थी…

जब राहों से ओस की, वह बूदें सूख जायेंगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

भीड़ की आवाज भी, जब अनसुनी सी थी कहीं…

तब आहटों को भी तूने, इन सासों मे बसा दिया…

जब घुंघरुओ की छ्नछनाहट, ये आँगन छोड़ जायेगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

एहसास ना था धूप का, इस जलन का, उस आग का…

पर तेरे एक स्पर्श  ने, इस रूह को सहला दिया…

जब चाँद की शीतलता भी, इक ऊष्णता बन जायेगी…

तब चीखेंगे आँसू, और, बरसात सहम जायेगी॥

ना चाहता था जानना, इस मौसम को आकाश को…

ना तनहाइयों का फ़ीकापन, ना साथ की मिठास को…

जब दर्द भरे संसार मै, तू मुझको छोड़ जायेगी…

फ़िर ना चीखेंगे आंसू, पर, ये सांसे रूठ जायेंगी…॥


अभय कुमार

First Lesson Of "SENSing NATURE"

Someday at home, i asked my mother "amm... in this rush from school to college, i sometimes realize that i definitely skipped some chapters of life. What you say is this right?” I was not expecting such powerful answer that she spontaneously poured out "obviously, you did. Life meant more than just the knowledge in those piebald pages, we are ignoramus if don’t ever sense the NATURE around. We are dried indeed being floating in the pool of wisdom."  I dint know, that these world will take me in a long journey of self-contemplation.
Well the journey yet not completed, but I find that “SENSING NATURE” is not just a couple of word, but it’s a complete course, which everyone needs to do for being educated actually. More interesting, it is free all time but priceless, and can be start at any stage of our life. And finally I read some of those skipped chapters, although the study is continued.
Among those countless chapters,one of them tells us about our existence which is the first chapter of that course.  As all of us know the concept of mortality, which is the prime truth. But beyond this we usually forget that we all are natural creature, just single things which distinguish us from other natural things is the liberty of our thought-process. God created everything else, and made a constitution of living on earth. Same as others, we too have to follow a Law i.e. “Long Original Valuable Emotion” or simply LOVE.  This law is needed to follow extensively in every moment and with everything. I also find that the nature is so strict, means whenever we try to breach this law; we are fined in the form of our Happiness.
So at last I realize that, “if we don’t want to get punish, then we need to stay out of our way
ward habits, and selfishness. Because both of them seed a trivial emotion of “LOVELESSNESS”