उङान
बस
छोटि सी उङान थी,
कुछ
तिनकों की तलाश में,
ठिठुर
रहे थे, मेरे बच्चे…
बस
मेरे इन्तजार में॥
पर
सोचा की कुछ दाने भी…
बटोर
लूं मैं उनके लिए…
वो
प्यासे हैं दो बूंदें भी…
मैं
साथ ले चल लूं लिए॥
बस
इतने अन्तराल में,
कुछ
सांझ सी भी, ढल गयी,
दिन
अन्धकार को बढ चला,
क्या
देर मुझको हो गयी ?
यह
सोचकर वह डरते हैं,
इस
कालेपन को देख कर,
मैं
जल्द ही फ़िर उङ चली,
संग
चींजें चन्द लपेटकर ॥
फ़िर
डर सा भी कुछ लगने लगा,
कहीं
चीखें ना नादान हैं वों,
सुन
चीखें उनकीं बैर कोइ,
ले
जा ले मेरे सहारों को॥
यह
सोच के धङकन बढ गयी,
मैं
पंखों की गति तेज कर,
रटती
उङती कहती, हे राम!
मेरे
बच्चों की तू रक्षा कर॥
ज्यों
पहुची मैं मौहल्ले में,
एक
बिखरा सा माहौल था,
कुछ
आरी की आवाजें थीं,
एकऽनर्थ
का आगोश था॥
यह
देख के धङकन थम गयी,
वह
पेङ गिरा था भूमी पर,
जिसमे
रहते मेरे बच्चे,
बिखरा
सा पङा वह मेरा घर॥
फ़िर
चूं-चूं की आवाज सुन,
मैं
दौङी कहाँ हैं मेरे लाल,
बस
सोचती मैं सलामत हों,
उनसे
ही तो है मेरी जान…!
पर
देखा की तरु का तना,
पट
सा पङा था उन नन्हों पर,
वो
आंखें मूंद के सिसक रहे,
माँ
आयेगी इस आस पर॥
निर्बल
कन्धों से फ़िर मैंने,
सोचा
की मैं लुढका दूं उसे,
पर
टस से मस ना हो पया,
असमर्थ
खङी मुझ अबला से॥
फ़िर
मदद की गुहार उठी,
इस
असहाय के मुख से,
कातिल
जो खङे आरों के संग ॥
तरु
के मालिक के निकट पहुंच,
मैं
बोली की, हे दयानिधान…!!
मेरे
तारों की सांसें अटकी,
तू
दे दे उनको प्राण दान॥
मैं
वही हू जो नित आती हूं,
निःस्वार्थ
तेरे आंगन मे,
तेरा
बच्चा भी खेलता है,
हंस
हंस के नित मेरे संग॥
क्यों
खङा है तू निर्दयी बनकर,
क्या
ममता की तुझे कद्र नहीं,
कीमत
क्या उनकी सांसों की,
कुछ
सिक्कों से भी बङी नहीं,
क्या
पायेगा इन लठ्ठों से,
क्या
पालेगा इन्हें बेच के तू,
तू
बख्क्श दे नन्हों की जान,
ले
रख ले ये दाने भी तू॥
इसका
भी कोइ असर नहीं,
वो
खङा रहा आरों के पास,
जब
चीखती मै तो हंसता वो,
एक
दिल भी नहीं था उसके पास॥
फ़िर
हार के मै वापस आयी,
गिन
लूं अब मैं सांसें उनकीं,
सहला
दूं मैं माथा उनका,
अब
असमर्थ थी, माँ उनकीं॥
सहला
के उनके मांथों को,
टपकायी
पानी की बूंदें,
कुछ
आंसूं भी टपका दिये,
नीले-नीले
उन होंटों पर,
वो
धीरे धीरे सो गये,
करते
करते मेरा ध्यान,
और
अन्ततः मैं समझ गयी,
छोटे
से जीवन की उङान…॥
अभय
कुमार